परिचय

भारत सरकार अधिनियम, 1919 की धारा 96 डी (i) के तहत परिषद में भारत के राज्य सचिव द्वारा बनाए गए नियमों के नियम 8 (ii) के तहत, महालेखापरीक्षक (जिसे अब भारत के नियंत्रक और महालेखापरीक्षक के रुप में जाना जाता है) को भारत के राजस्व में व्यय की लेखापरीक्षा के लिए जिम्मेदार बनाया गया था। 1919 के सुधारों के तहत, जब यह नियम बनाया गया था, तो रक्षा सेवाओं पर व्यय के संबंध में महालेखापरीक्षक को अपनी वैधानिक जिम्मेदारी का निर्वहन करने के तरीके के बारे में सवाल पैदा हुआ। यह निर्णय लिया गया कि महालेखापरीक्षक के पास सैन्य (अब रक्षा) लेखा कार्यालयों में काम करने के लिए अपने स्वयं का निरीक्षण स्टाफ होना चाहिए जो कि उन कार्यालयों में किये गए कार्य की स्टीकता को जाँच सके। तदानुसार, मार्च 1922 में एक उपमहालेखापरीक्षक की नियुक्ति को मंजूरी दी गई थी। कालांतर में प्राप्त अनुभव के परिणामस्वरुप, भारत सरकार ने मार्च 1924 में एक अस्थायी उपाय के रुप में सामान्य सूची की श्रेणी 1 के दो अधिकारियों को भी सैन्य (अब रक्षा) खातों के परीक्षण ऑडिट के लिए उप-महालेखापरीक्षक नामित किया। जबकि उनमें से एक सेना मुख्यालय में तैनात था, अन्य दो दक्षिण, पश्चिमी, उत्तरी और पूर्वी कमान में काम करने के लिए थे। कमान के उप-महालेखापरीक्षक के कार्य में सैन्य (अब रक्षा) लेखा विभाग के प्रत्येक कमान और जिला कार्यालय में किए गए काम का विस्तृत निरीक्षण और नमूना लेखा परीक्षा शामिल थे। मुख्यालय में उप-महालेखापरीक्षक के कार्य के अन्तर्गत सेना विभाग में भारत सरकार की संस्वीकृतियों के साथ-साथ लेखापरीक्षा की प्रगति को देखना था।

मई 1924, में यह निर्णय लिया गया कि भारतीय हालातों को देखते हुए जहां तक संभव हो, यूनाइटेड किंगडम के नियंत्रक एवं महालेखापरीक्षक द्वारा थलसेना के व्यय पर लागू लेखापरीक्षा की प्रणाली को अपनाया जाए।

तदानुसार, अन्य बातों के साथ-साथ, सेना मुख्यालय में उप-महालेखाकार के पद पर प्रथम श्रेणी के पद को महालेखाकार, सेना लेखापरीक्षा के नामित निदेशक (बाद में लेखापरीक्षा, रक्षा के निदेशक रक्षा सेवाएं, और वर्तमान में महानिदेशक लेखापरीक्षा रक्षा सेवाएं के रुप में नामित किया गया) के पद में परिवर्तित करने के लिए प्रस्ताव राज्य सचिव को प्रस्तुत किया गया। नई योजना को राज्य सचिव द्वारा जनवरी 1925 में अनुमोदित किया गया था और 1 मार्च 1928 से स्थायी रुप से स्वीकृत किया गया था।

भारत सरकार अधिनियम 1935 की शुरुआत के साथ परिषद में एक आदेश अर्थात भारत सरकार (लेखापरीक्षा और लेखा) के आदेश को 18 दिसंबर 1936 को जारी किया गया था, जिसके अंतर्गत महालेखापरीक्षक को रक्षा, रेलवे से संबंधित खातों और यूनाइटेड किंगडम में लेन-देन से संबंधित खातों के अलावा डोमिनियन और प्रत्येक प्रांत के खातों को रखने के लिए जिम्मेदार बनाया गया था।

भारत के नियंत्रक एवं महालेखापरीक्षक भारत के संविधान से अपना अधिकार प्राप्त करते हैं जो उसके कर्त्तव्यों और कार्यों को निर्धारित करते हैं। नियंत्रक एवं महालेखापरीक्षक न तो संसद का कोई अधिकारी है और न ही सरकार का कोई पदाधिकारी है। उसकी नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा अपने हस्ताक्षर और मुहर के तहत एक वारंट द्वारा की जाती है। संविधान के अनुच्छेद 148 से 151 तक और उसके बाद के नियंत्रक और महालेखापरीक्षक (कर्त्तव्य, शक्तियां और सेवा की शर्तें) अधिनियम, 1971 में नियंत्रक और महालेखापरीक्षक के कर्त्तव्यों और शक्तियों को निर्धारित किया गया है।

 

भारत के नियंत्रक और महालेखापरीक्षक के सांविधिक कर्त्तव्यों में निम्नलिखित की लेखापरीक्षा शामिल है:-

(क) भारत और भारत के राज्यों और संघ राज्य क्षेत्रों की समेकित निधियों से प्राप्तियां और व्यय;

(ख) आकस्मिक निधि और सार्वजनिक खातों से संबंधित लेन-देन;

(ग) संघ के या किसी राज्य के किसी सरकारी विभाग में रखे गए व्यय विनिर्माणी, लाभ और हानि खाते और बैलेंस शीट और अन्य सहायक खाते;

(घ) सरकारी कार्यालयों और विभागों में रखे गए भंडार और स्टॉक के खाते;

(ड़)  भारतीय कंपनी अधिनियम, 1956 के तहत स्थापित सरकारी कंपनियां;

(च) केंद्र सरकार के निगम जिनके पास नियंत्रक और महालेखापरीक्षक द्वारा लेखापरीक्षक के लिए वैधानिक प्रावधान है;

(छ) समय-समय पर निर्धारित मानदंडों के अनुसार समेकित निधियों से पर्याप्त रुप से वित्त प्रेषित प्राधिकरण और निकाय;

(ज) राष्ट्रपति/राज्यपाल के अनुरोध पर या नियंत्रक और महालेखापरीक्षक की अपनी पहल पर कोई निकाय या प्राधिकरण, भले की पर्याप्त रुप से वित्तपोषित न हो;

(झ) विशिष्ट उद्देश्यों के लिए सरकार द्वारा दिए गए अनुदानों और ऋणों से संबंधित निकायों और प्राधिकरणों के खाते;

 

नियंत्रक और महालेखापरीक्षक द्वारा अपने कर्त्तव्यों का प्रभावी ढंग से निर्वहन करने में सक्षम बनाने के लिए अधिनियम की धारा 18 के तहत अधिकार हैं:-

(a) 1. संगठन के किसी भी कार्यालय का उसकी लेखापरीक्षा के अधीन निरीक्षण करना;

2. लेखापरीक्षा के दौरान आवश्यक किसी भी लेखा बहियों और अन्य प्रासंगिक दस्तावेजों की मांग करना;

3. प्रश्न रखें या इस तरह के अवलोकन करें जो आवश्यक समझे जा सकते हैं और जो ऐसी जानकारी मांगने के लिए    किसी खाते या रिपोर्ट को तैयार करने के लिए आवश्यक हो सकते हैं।

(b) किसी कार्यालय या विभाग का प्रभारी व्यक्ति, जिसके लेखाओं का निरीक्षण या लेखापरीक्षा, नियंत्रण एवं महालेखापरीक्षक द्वारा की जानी है, जानकारी के लिए किये गए सभी अनुरोधों को यथासंभव पूरे तौर पर और समुचित शीघ्रता से पूरा करेगा।

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